गुरुजी मेरे विद्यालय के सबसे लोकप्रिय और हमारे आदर्श आचार्य थे। उनका इकलोता पुत्र 'अर्पित' मेरा सहपाठी और घनिष्ट मित्र था। अर्पित जब तीन साल का था तब उसके माता जी का देहान्त हो चुका था। उसके बाद अर्पित के पिता जी ने दूसरी शादी की जिसे वह 'चाची' कहकर पुकारता था। दुर्भाग्यवश चाची जी की झोली में भी खुदा ने कोई संतान नहीं दी थी।जब मैँ 12 वीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब उनका स्थानान्तरण अपने शहर के ही एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में हो गया था। तब अर्पित भी उन्हीं के साथ चला गया। काफी दिन बाद मैँने उनको पत्र लिखा जिसमें सब के कुशलक्षेम लिखने के साथ ही अर्पित को प्यार भरा उल्हाना दिया था कि आप जैसे घनिष्ट मित्र के अभाव में विद्यालय में हमारा मन नहीं लगता। मगर पत्र का ज्वाब मिलने पर हमें पता चला कि वो अपने शहर जाने के कुछ दिन बाद ही बिमार होकर अपने माता-पिता और हम सब को छोङकर खुदा को प्यारा हो गया। पत्र के ज्वाब में गुरुजी ने ईश्वर के हाथों किये गये इस अन्याय को अपनी स्वप्न-कथा के साथ इस प्रकार शैयर किया कि उसे पढ़कर हमारी आँखों में आँसू छलक पङे . . .
प्रिय सुखदेव,
नमस्कार,
आपका पत्र पढ़कर अत्यन्त खुशी हुई। आप हमें याद करते हैं, यह जानकर भी बहुत खुशी हुई। यह भी पढ़ा कि आपके यहाँ हिन्दी विषय के नये व्याख्याता आ गये हैं जो बेहद खुशी की बात है। आपकी बहुत याद आती है, अर्पित भी आपको बहुत याद किया करता था।
बेटा, खुशी और गम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, परन्तु कभी-कभार असमय ही दु:ख की घङियाँ बितानी पङती है। तुम्हारे वहाँ बिताये पल स्वर्ग से कम नहीं थे, मगर यहाँ आते ही खुदा ने न जाने क्यों सारी खुशियाँ छीन ली। अब तो एक-एक पल आँसू बहाते जी रहे हैं। खुदा ने हमें एक ही तो आँखों का तारा दिया था और उसे भी असमय ही छीन लिया। तुम्हें अभी मालुम नहीं था, तभी तुमने उसके लिये सब-कुछ लिखा है।
मैंने एक भयानक स्वप्न देखा था जो साकार हो गया - एक बार एक पेङ पर दो परिन्दे बैठे थे, दोनों लम्बी जुदाई के बाद वापस मिले थे। एक परिन्दा काफी दुखी स्वर में बोल रहा था - जिस दिन से हम बिछुङे, तब से केवल तुम्हारी ही याद आती है और न जाने क्यों मन-ही-मन बातें करने को जी करता है। तभी मैं उङकर इस जंगल के हर एक विटप की डाली-डाली छान बैठता हूँ। यह तो मैं खुदकिस्मत हूँ कि अनजाने में ही आप मिल गये. . . यह बोलते हुए उसका दु:ख कुछ हल्का होने लगा और धीरे से अपने पंख फङफङाये। तभी दूसरा परिन्दा बोल पङा - यार तुम्हारे लिये तो मैँ सारा जंगल छान बैठा मगर कहीं नहीं मिल पाये। आज हम दोनों खुदा की मेहर से एक जगह हैं, कल से यहीं नये आशियाने बनायेंगे और फिर से एक साथ रहेंगे। इस प्रकार बातेँ करते हुए दोनों ने इधर-उधर से तिनके इकट्ठे करके एक पेङ पर दो सुन्दर से आशियाने बना लिये। आशियाने इस प्रकार झूम रहे थे मानो किसी लता के फल झूम रहे हों। दोनों ने दिनभर उनमें आराम किया मगर जैसे ही शाम होने लगी दोनों में फिर से खामोशी छा गई।और कुछ ही देर में मैंने देखा क्षितिज के उस छोर से घने काले बादल उमङने लगे और देखते ही देखते काली घटाओं ने विकराल तूफां का रूप ले लिया। सारे जंगल में हाहाकार मच उठा था। तेज आँधी और ओला वृष्टी से पेङ के पेङ उखङने लगे।अचानक एक बवण्डर से दोनों घोंसले आपस में टकराये और एक घोंसला टूटकर कुछ दूरी पर जा गिरा। तभी लुढकते हुए एक बङे से टहने ने उसे दबोच लिया। उसमें फंसा हुआ परिंदा सदा के लिये चल बसा था।कुछ देर बाद जब मौसम शांत हुआ तो उसका प्रेमी फिर से बेसब्री से विलाप करता हुआ उसकी तलाश में लग गया . . .
इसी प्रकार मैं भी अपने आशियाने के एक परिन्दे को सदा के लिये खो बैठा हूँ। आपका सहपाठी 'अर्पित' अपनी माँ की तरह मुझे और अपनी चाची को सदा के लिये छोङ कर चला गया।
अर्पित के लिये आपने जो प्यार भरा उल्हाना भेजा था, उसे मैं नम आँखों से पढ़ता रहा और खुदा से दुआ मांगी कि मेरा एक दूसरा बेटा जिसे मैं खत लिख रहा हूँ, को सलामत रखना . . .
इसी के साथ . . .
शुभाशीर्वाद
सुधीन्द्र दवे
इटानगर
अर्पित की घनिष्ट मित्रता बाल सखा -कृष्ण और सुदामा की पावन मित्रता को पुन: जीवित करने मेँ सक्षम थी।
जवाब देंहटाएंधरती पर अवतरित भगवान कृष्ण की प्रतिमूर्ति 'स्वर्गीय अर्पित' को शत-शत नमन।
bilkul Karun Ji aap bilkul sahi kaha
जवाब देंहटाएंजीवन चक्र में ऐसी स्थितियाँ आती हैं जब अपने मन को स्वयं ही सहारा देना होता है. चाहे मित्र के रुप में चाहे पिता के रूप में.
जवाब देंहटाएंटिप्पणी से 'word verification' हटा दीजिए इससे टिप्पणी लिखना आसान हो जाता है.
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