शनिवार, 7 मई 2011

प्रेम की पीर . . .

बढती भीङ के बावजूद भी आज हर इंसान अपने आप को अकेला महसूश करता हुआ नजर आता है। वास्तव में वो बङे ही दर्दनाक और यादगार के पल होते हैँ जब कोई उन्हें किसी की याद में अथवा किसी के इंतजार में बिताता है। दयनीय स्थिति तो तब होती है जब जाने-अनजाने घङी-दो-घङी दो-चार साथियों की महफिल में बिताने के बाद फिर अपने आप में डूब कर उन पलों का अकेले स्मरण करते है। मैं स्वयं भी ऐसा ही पाता हूँ। अक्सर दो-चार महिनों के बाद मिलने वाले साथियों के मिलने पर जो खुशी की लहर आती है वो तो आसमां छू जाती है, मगर समय गुजरते जब वो मुझसे विदा होते हैं, तो दिल टूट सा जाता है। यद्यपि यह बाहर प्रकट हो ना हो तथापि अन्दर भू-चाल सा उठा देती है। कई बार मेरी इस बेरुखी को देख मेरे अपने ही मेरी मजाक भी बना लेते हैं, मगर उन्हें इस बात का अहसाश तब होता है जब उन्हें अपने वाशिंदे में खुद को अकेले छोङकर उनके अपने सब चल देते हैँ। मैं कई बार अपनों की याद में नीँद की राह भटक जाता हूँ और वहीं से बैचेनी की ठोकरें खाते हुए भोर तक ख्वाब देखता रहता हूँ। इसी तपस्या के फलस्वरुप ही मेरी कलम कुछ सृजन करने को मजबूर हो जाती है और यही पल मेरे जीवन का स्वर्ण युग होते हैँ जब मैँ या तो अपनों के बारे में लिखता हूँ या फिर अपनों के लिये॥
मैँने खुद इस शैयर को पढ़ा और महशूस किया है -

दिल के दर्द को छुपाना कितना मुश्किल है,
टूट के फिर मुस्कुराना कितना मुश्किल है।
दूर तक किसी के साथ जाओ और देखो,
लौटकर अकेले वापस आना कितना मुश्किल है . . .

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