गुरुवार, 29 मार्च 2012

दोस्ती का पैगाम

दोस्त तुम यादों में हो, वादों में हो, संवादों में हो गीतों में हो, ग़ज़लों में हो, ख़्वाबों में हो चुप्पी में हो, खामोशी में हो, तन्हाई में हो महफिल में हो, कहकहो में हो और बेवफाई में भी हो तुम उन चिट्ठियों में हो जो तुम्हें दे न सका तुम उस टीस में भी हो जो तुम देते रहे और मैं उस मीठे दर्द को अल्फाजों में बदलता रहा तुम उस खुशी में भी हो जो तुमने मुझे अनजाने में दी ...इतना कुछ होने के बाद तुम अगर मुझसे रूठ भी जाओ तो अलग कैसे हो पावोगे? नाराज होकर फेसबुक से अन्फ्रेंड कर दोगे डायरी से फाड़ दोगे, ग्रीटिंग्स कार्ड जला दोगे लेकिन मेरी यादें? जानते हो... यादें और चुप्पियाँ एक-दूसरे की डायरेक्टली प्रपोशनल होती हैं चुप्पियाँ, यादों के समन्दर में डूबोती चली जाती हैं कहते हैं... खामोशी और बोलती है... प्रतिध्वनि भी करती है पगला देती है आदमी को इसलिए शब्दों का और आँसुओं का बाहर निकलना बहुत जरूरी है मैं बाहर निकल आया हूँ, तुम भी बाहर आ जाओ अपने ईगो के खोल से मैं भी सॉरी बोलता हूँ, तुम भी बोलो ...बोलो, तुम्हारा भी कद ऊँचा हो जाएगा अब छोड़ो भी इन बातों को, गलती किसी की भी हो पर हत्या तो दोस्ती की हुई न? ...और हमारी दोस्ती इतने कमजोर धागों से नहीं बँधी है कि एवीं टूट जाय न दोस्ती को एवीं टूटने देंगे... नजिन्दगी को क्योंकि दोनों अनमोल हैं।

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