मंगलवार, 15 मई 2012

जी भर के रोने दो . . .

नहीं जाना मुझे खुशियों की महफिल में,
 आज मुझे बैठने दो तन्हा, यादों में खोने दो।
 खूब हंसा हूँ बाहरी हंसी गम छुपाकर,
 आज फूटने दो ज्वालामुखी गमों की,
 डूबने दो तन्हाई में, जी भर के रोने दो।
 जिन्दगी के हर कदम साथ उठे थे जिनके,
 आज उन्हीं यादों को आँसुओँ से धोने दो।
 क्या पाया है मैनेँ उन बेवफाओं से दिल लगाकर,
 बुझने दो दीप सुनहरे, अंधियारा होने दो,
 डूबने दो तन्हाई में, जी भर के रोने दो।
सजायी थी कंटकों में चलकर भी राहें उनकी फूलों से,
 आज डौली उनकी किसी और को सजाने दो।
 कर लेने दो हमें आत्म-दाह मोहब्बत की आग से,
बनाने दो उन्हें संगीन आशियाने, आबाद उनको होने दो।
 डूबने दो तन्हाई में, जी भर के रोने दो।

1 टिप्पणी:

  1. ओह्ह इतनी करूण रचना! क्या खबर कोई परेशानी? यूंहीं तो नही लिखता कोई इतना दुख। अच्छी रचना है बस पद्य को गद्य रूप में लिखा गया है।

    नहीं जाना मुझे
    खुशियों की महफिल में,
    आज मुझे बैठने दो तन्हा,
    यादों में खोने दो।

    खूब हंसा हूँ बाहरी हंसी
    गम छुपाकर,
    आज फूटने दो
    ज्वालामुखी गमों की,
    डूबने दो तन्हाई में,
    जी भर के रोने दो।

    जिन्दगी के हर कदम
    साथ उठे थे जिनके,
    आज उन्हीं यादों को
    आँसुओँ से धोने दो।

    क्या पाया है मैनेँ
    उन बेवफाओं से दिल लगाकर,
    बुझने दो दीप सुनहरे,
    अंधियारा होने दो,
    डूबने दो तन्हाई में,
    जी भर के रोने दो।

    सजायी थी कंटकों में चलकर भी
    राहें उनकी फूलों से,
    आज डौली उनकी
    किसी और को सजाने दो।

    कर लेने दो हमें
    आत्म-दाह मोहब्बत की आग से,
    बनाने दो उन्हें संगीन आशियाने,
    आबाद उनको होने दो।
    डूबने दो तन्हाई में,
    जी भर के रोने दो।
    लो भई लिख दिया है...:)

    जवाब देंहटाएं