सोमवार, 30 जुलाई 2012

मेघा . . .


क्यों तङपाते खग मृग को,
हरधर ताक रहा तुम्हारी ओर।
ना गुजारो यूं सावन सूखा,
क्यों घूम रहे हो मेघा ओर-छोर।।
तेरे बिना है मौन तरंगिनी,
निःशब्द है कल-कल झरनों की।
कूक रही कोयल, पपीहा पीहू-पीहू,
कैसी दुर्दशा हो रही है वनों की।।
...ना तोलो तुम पाप-पुण्य को,
कलियुग में यह बोझा तुम्हें ढ़ोना होगा।
हिंसक है नृसंस पापी मानव,
मगर इन पापों को तुम्हें ही धोना होगा।।
लाज रखो तुम इस अचला की,
हो रहा झीना अब परिधान है।
कैसी लपटें उगल रहा अंशुमाली,
यज्ञ-हवन, बस चहुंओर तेरा ही गुणगान है।।
हलधर पर अब रहम् करो तुम,
भर दो ताल-तलैया नदी-नाले।
हलधर की भी गुहार सुनो तुम,
गलज-गरज कर बरसो मेघा हो मतवाले।।


                                     ~ सुखदेव करुण

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