डोर धनुष की टूट चुकी है,
तीर पङे हैं सब तरकस में।
छायाओं से मत डरो ए हिन्दी हरिणों।
शेर घुसे हैं सब सरकस में।
एक कहानी सुनो तुम अपनी,
कितनी अजीब है यह यकीन।
पिता स्वरूप सिंहासन तुम्हारा है विजयी,
मगर माता को कैसे गये वो छीन।
क्या विचार है तुम्हारा,
पूछो जरा विधाता से।
क्यों हैं हम उस वत्सल से वंचित,
स्नेह मिलता है जो अपनी माता से।
कह दो उनको ले जाओ तुम,
क्यों छोङ गये इस नोकरानी को।
नहीं चाहिए यह जहरीला आँचल,
अपनी माता चाहिए हर हिन्दुस्तानी को।
तुम संतान इसकी नहीं हो,
बदल गये हैं तुम्हारे विचार।
मगर अब कैसे सहा जायेगा ,
तुमसे यह सौतेला व्यवहार।
सम्बोधन तो अच्छा ही है,
जय-भीम कहो या गाँधी।
हम माँग यही रखेंगे उनके सम,
आयेगी जब प्रतिनिधित्व की आँधी।
गर चाहते हो माता की गोद,
तो एक नये गाँधी को और उभरना होगा।
संविधान की धारा सो-तीन-इक्यावन के,
साकार उस स्वप्न को करना होगा।
तीर पङे हैं सब तरकस में।
छायाओं से मत डरो ए हिन्दी हरिणों।
शेर घुसे हैं सब सरकस में।
एक कहानी सुनो तुम अपनी,
कितनी अजीब है यह यकीन।
पिता स्वरूप सिंहासन तुम्हारा है विजयी,
मगर माता को कैसे गये वो छीन।
क्या विचार है तुम्हारा,
पूछो जरा विधाता से।
क्यों हैं हम उस वत्सल से वंचित,
स्नेह मिलता है जो अपनी माता से।
कह दो उनको ले जाओ तुम,
क्यों छोङ गये इस नोकरानी को।
नहीं चाहिए यह जहरीला आँचल,
अपनी माता चाहिए हर हिन्दुस्तानी को।
तुम संतान इसकी नहीं हो,
बदल गये हैं तुम्हारे विचार।
मगर अब कैसे सहा जायेगा ,
तुमसे यह सौतेला व्यवहार।
सम्बोधन तो अच्छा ही है,
जय-भीम कहो या गाँधी।
हम माँग यही रखेंगे उनके सम,
आयेगी जब प्रतिनिधित्व की आँधी।
गर चाहते हो माता की गोद,
तो एक नये गाँधी को और उभरना होगा।
संविधान की धारा सो-तीन-इक्यावन के,
साकार उस स्वप्न को करना होगा।
14 सितम्बर 2009 (राष्ट्र भाषा - हिन्दी दिवस) पर प्रस्तुत रचना।
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