सोमवार, 13 दिसंबर 2010

किन-किन को साकार करूं . . .

तीर्थ मेरे हैं अनेक,
किन-किन का आभार करुं।
देखे हैं सहस्रों स्वप्न,
किन-किन को साकार करुं।

सोचता हूँ अमर बनूं,
या समाज हित समर बनूं।
मन चाहता है खिलते फूलों पे,
मंडराता भ्रमर बनूं।

सहनी हो हर पल पीङा,
पर मन-मानस ना घबराए,
निष्काम कर्म-रत् रहकर मैं,
खत्म करूँ दु:ख के साये।
सुख-दु:ख दोनों साथी है,
सोच मन में यह सह जाऊँ।
दीन बनकर हीन भाव से,
हाथ किसी-सम ना फैलाऊँ।
जलता रहूँ मैं दीपक की भाँति,
जग का सारा अंधकार मिटाऊँ।
जन्म लिया है मानस-जग में,
जनहित के लिये ही जीवन बिताऊँ।
घूमता रहूँ मैं सारे जग में,
चलती रहे कलम निरन्तर।
साहित्य के इन स्वर्ण पृष्ठों से,
हो मुखरित सारा मानव तन्त्र।
~ सुखदेव 'करुण'
25 JULY, 2008

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