गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

वन विभाग की सतर्कता . . .

एक तरफ आम आदमी ने अपने अर्थ के मोह में अपनी जिन्दगी को सिमेट लिया है तो दूसरी तरफ विभाग के कर्मचारियोँ ने प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा के नाम पर अच्छा मादेय प्राप्त करना ही अपनी चाहत बना ली। ऐसे में इन धरोहरों की रक्षा की बात ही चली गई। यह कङवा सच है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण रूप से माया के मोह में लिप्त है और अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं बल्कि उससे विमुख है। पिछले चार साल में 7 बाघोँ की दर्दनाक मौत ने यह साबित कर दिया है कि वन विभाग के कर्मचारीगण का उद्देश्य मानदेय प्राप्त करना मात्र है। मोत के शिकार बने कुल सात बाघोँ में से तीन ने लङाई में जान दी, दो को जहर मिला। एक शिकार की बलि चढ गया तो एक की जान बिमारी ने ले ली। कुछ तो अधिकतर लापता ही रहते हैँ। मैं सोचता हूँ उनको यह कहते हुए शर्म क्यों नहीं आती कि फलां बाघ रेंज से बाहर है, असल में तो वो खुद वन विभाग की रेँज से बाहर नजर आते हैँ। आज सोचनीय विषय यह है कि यह बिकी हुई सरकार शायद किसी भी विभाग की खामियों की केवल लम्बी-लम्बी फाइलें बनाना ही जानती है। हमारे द्वारा चुने हुए नायक मात्र सदन में हंगामों को अंजाम देने के गुर सीखते हैं और बङी ही चालाकी से यह काम करते भी हैं। अपना कार्य क्षैत्र और कर्तव्य से तो वो अनभिज्ञ ही हुआ करते हैँ। भारत का वर्तमान यह है, तो भविष्य का क्या होगा, यह सोच पाना काफी कठिन है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें