बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

कवि जीवन की साधना ...



         क्या मात्र कल्पना की अपार शक्ति ही कवि का परिचय है? क्या लोक-परलोक के, इस चर-अचर जगत के अच्छे-बुरे लम्हों रुपी मनकोँ को शब्द-माला में पिरोकर हर आम-खास के सामने परोसना मात्र ही कवि का काम है? या फिर इन लम्हों को शब्द रुप देने के अलावा वह इन्हें अपने जीवन में उतारता भी है? कवि की शब्द जाल में इतनी तल्लीनता और तन्मयता, समाज और सांसारिक जगत के साथ कहीं तालमेल बनाकर कदम से कदम मिलाकर चलना तो कहीं किसी अमानुसिकता पर तीक्षण प्रहार कर उसे समूल नष्ट कर डालने का साहस; ये सब सहजता से कैसे हो पाता है? वो मात्र चार पंक्तियों में इतना प्यार घोल देते हैं कि वक्ता या स्रोता दंग रह जाये। ये सब देखकर मेरे अन्तरमन में एक और प्रश्न उठता है कि इतने प्यार भरे लम्हों को इतनी सहजता से एक कविता में संजोने वाली ये महान आत्माएं अपने सांसारिक जीवन में अपने आत्मीय जनों को वास्तव में कितना प्यार दे पाते हैं? और यदि ऐसा प्यार उनको मिलता है तो फिर भी उनको स्वर्ग की तलाश है? हाँ, जहां तक मेरा अनुभव है, मेरी पंक्तियों में जो तन्हाई और बेरुखी है, शायद उससे कई गुणा अधिक वो मेरे यथार्थ जीवन में देखने को मिलेगी। मैँ सोचता हूँ, जिन कवियों ने राधा और कृष्ण के प्यार और आलिंगन को साहित्य में उकेरा है, अवश्य ही उन्हें भी अपने जीवन में ऐसे मौके नसीब हुए होंगे। या फिर मेरी वेदनामयी पंक्तियों की तरह ही जीवन में भी करुण रुदन की दु:खद घङियाँ भी आती होंगी। तब वो उन्हीं से प्रेरित होकर शायद उन्हें अपनी कलम से कागज पर उकेर देते होंगे। इन सब प्रश्नों के उत्तर शायद कवि जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव करके ही पा सकूंगा।

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