गुरुवार, 29 मार्च 2012

दोस्ती का पैगाम

दोस्त तुम यादों में हो, वादों में हो, संवादों में हो गीतों में हो, ग़ज़लों में हो, ख़्वाबों में हो चुप्पी में हो, खामोशी में हो, तन्हाई में हो महफिल में हो, कहकहो में हो और बेवफाई में भी हो तुम उन चिट्ठियों में हो जो तुम्हें दे न सका तुम उस टीस में भी हो जो तुम देते रहे और मैं उस मीठे दर्द को अल्फाजों में बदलता रहा तुम उस खुशी में भी हो जो तुमने मुझे अनजाने में दी ...इतना कुछ होने के बाद तुम अगर मुझसे रूठ भी जाओ तो अलग कैसे हो पावोगे? नाराज होकर फेसबुक से अन्फ्रेंड कर दोगे डायरी से फाड़ दोगे, ग्रीटिंग्स कार्ड जला दोगे लेकिन मेरी यादें? जानते हो... यादें और चुप्पियाँ एक-दूसरे की डायरेक्टली प्रपोशनल होती हैं चुप्पियाँ, यादों के समन्दर में डूबोती चली जाती हैं कहते हैं... खामोशी और बोलती है... प्रतिध्वनि भी करती है पगला देती है आदमी को इसलिए शब्दों का और आँसुओं का बाहर निकलना बहुत जरूरी है मैं बाहर निकल आया हूँ, तुम भी बाहर आ जाओ अपने ईगो के खोल से मैं भी सॉरी बोलता हूँ, तुम भी बोलो ...बोलो, तुम्हारा भी कद ऊँचा हो जाएगा अब छोड़ो भी इन बातों को, गलती किसी की भी हो पर हत्या तो दोस्ती की हुई न? ...और हमारी दोस्ती इतने कमजोर धागों से नहीं बँधी है कि एवीं टूट जाय न दोस्ती को एवीं टूटने देंगे... नजिन्दगी को क्योंकि दोनों अनमोल हैं।

उसे फिर कभी याद आ ना सके

उसे फिर कभी याद आ ना सके, जिसे भुलकर भी भुला ना सके। यू बाते बहुत कि बिना बात की, मगर हाल दिल का बता ना सके। पता उनको घर का बताते भी क्या, कभी एक ठिकाना बना ना सके। वो होगे खुदा कम हम भी नही, यही सोच कर सर झुका न सके।तुफान से निकले तो बचके मगर, साहिल पे किश्ती को ला ना सके। जला डाले खत और तस्वीर भी, मगर यादो के घर जला ना सके। प

मंगलवार, 21 जून 2011

गुरुजी को लिखे पत्र का ज्वाब

गुरुजी मेरे विद्यालय के सबसे लोकप्रिय और हमारे आदर्श आचार्य थे। उनका इकलोता पुत्र 'अर्पित' मेरा सहपाठी और घनिष्ट मित्र था। अर्पित जब तीन साल का था तब उसके माता जी का देहान्त हो चुका था। उसके बाद अर्पित के पिता जी ने दूसरी शादी की जिसे वह 'चाची' कहकर पुकारता था। दुर्भाग्यवश चाची जी की झोली में भी खुदा ने कोई संतान नहीं दी थी।जब मैँ 12 वीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब उनका स्थानान्तरण अपने शहर के ही एक उच्च माध्यमिक विद्यालय में हो गया था। तब अर्पित भी उन्हीं के साथ चला गया। काफी दिन बाद मैँने उनको पत्र लिखा जिसमें सब के कुशलक्षेम लिखने के साथ ही अर्पित को प्यार भरा उल्हाना दिया था कि आप जैसे घनिष्ट मित्र के अभाव में विद्यालय में हमारा मन नहीं लगता। मगर पत्र का ज्वाब मिलने पर हमें पता चला कि वो अपने शहर जाने के कुछ दिन बाद ही बिमार होकर अपने माता-पिता और हम सब को छोङकर खुदा को प्यारा हो गया। पत्र के ज्वाब में गुरुजी ने ईश्वर के हाथों किये गये इस अन्याय को अपनी स्वप्न-कथा के साथ इस प्रकार शैयर किया कि उसे पढ़कर हमारी आँखों में आँसू छलक पङे . . .


प्रिय सुखदेव,
नमस्कार,
आपका पत्र पढ़कर अत्यन्त खुशी हुई। आप हमें याद करते हैं, यह जानकर भी बहुत खुशी हुई। यह भी पढ़ा कि आपके यहाँ हिन्दी विषय के नये व्याख्याता आ गये हैं जो बेहद खुशी की बात है। आपकी बहुत याद आती है, अर्पित भी आपको बहुत याद किया करता था।
बेटा, खुशी और गम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, परन्तु कभी-कभार असमय ही दु:ख की घङियाँ बितानी पङती है। तुम्हारे वहाँ बिताये पल स्वर्ग से कम नहीं थे, मगर यहाँ आते ही खुदा ने न जाने क्यों सारी खुशियाँ छीन ली। अब तो एक-एक पल आँसू बहाते जी रहे हैं। खुदा ने हमें एक ही तो आँखों का तारा दिया था और उसे भी असमय ही छीन लिया। तुम्हें अभी मालुम नहीं था, तभी तुमने उसके लिये सब-कुछ लिखा है।
मैंने एक भयानक स्वप्न देखा था जो साकार हो गया - एक बार एक पेङ पर दो परिन्दे बैठे थे, दोनों लम्बी जुदाई के बाद वापस मिले थे। एक परिन्दा काफी दुखी स्वर में बोल रहा था - जिस दिन से हम बिछुङे, तब से केवल तुम्हारी ही याद आती है और न जाने क्यों मन-ही-मन बातें करने को जी करता है। तभी मैं उङकर इस जंगल के हर एक विटप की डाली-डाली छान बैठता हूँ। यह तो मैं खुदकिस्मत हूँ कि अनजाने में ही आप मिल गये. . . यह बोलते हुए उसका दु:ख कुछ हल्का होने लगा और धीरे से अपने पंख फङफङाये। तभी दूसरा परिन्दा बोल पङा - यार तुम्हारे लिये तो मैँ सारा जंगल छान बैठा मगर कहीं नहीं मिल पाये। आज हम दोनों खुदा की मेहर से एक जगह हैं, कल से यहीं नये आशियाने बनायेंगे और फिर से एक साथ रहेंगे। इस प्रकार बातेँ करते हुए दोनों ने इधर-उधर से तिनके इकट्ठे करके एक पेङ पर दो सुन्दर से आशियाने बना लिये। आशियाने इस प्रकार झूम रहे थे मानो किसी लता के फल झूम रहे हों। दोनों ने दिनभर उनमें आराम किया मगर जैसे ही शाम होने लगी दोनों में फिर से खामोशी छा गई।और कुछ ही देर में मैंने देखा क्षितिज के उस छोर से घने काले बादल उमङने लगे और देखते ही देखते काली घटाओं ने विकराल तूफां का रूप ले लिया। सारे जंगल में हाहाकार मच उठा था। तेज आँधी और ओला वृष्टी से पेङ के पेङ उखङने लगे।अचानक एक बवण्डर से दोनों घोंसले आपस में टकराये और एक घोंसला टूटकर कुछ दूरी पर जा गिरा। तभी लुढकते हुए एक बङे से टहने ने उसे दबोच लिया। उसमें फंसा हुआ परिंदा सदा के लिये चल बसा था।कुछ देर बाद जब मौसम शांत हुआ तो उसका प्रेमी फिर से बेसब्री से विलाप करता हुआ उसकी तलाश में लग गया . . .
इसी प्रकार मैं भी अपने आशियाने के एक परिन्दे को सदा के लिये खो बैठा हूँ। आपका सहपाठी 'अर्पित' अपनी माँ की तरह मुझे और अपनी चाची को सदा के लिये छोङ कर चला गया।
अर्पित के लिये आपने जो प्यार भरा उल्हाना भेजा था, उसे मैं नम आँखों से पढ़ता रहा और खुदा से दुआ मांगी कि मेरा एक दूसरा बेटा जिसे मैं खत लिख रहा हूँ, को सलामत रखना . . .
इसी के साथ . . .
शुभाशीर्वाद

सुधीन्द्र दवे

इटानगर

शनिवार, 7 मई 2011

प्रेम की पीर . . .

बढती भीङ के बावजूद भी आज हर इंसान अपने आप को अकेला महसूश करता हुआ नजर आता है। वास्तव में वो बङे ही दर्दनाक और यादगार के पल होते हैँ जब कोई उन्हें किसी की याद में अथवा किसी के इंतजार में बिताता है। दयनीय स्थिति तो तब होती है जब जाने-अनजाने घङी-दो-घङी दो-चार साथियों की महफिल में बिताने के बाद फिर अपने आप में डूब कर उन पलों का अकेले स्मरण करते है। मैं स्वयं भी ऐसा ही पाता हूँ। अक्सर दो-चार महिनों के बाद मिलने वाले साथियों के मिलने पर जो खुशी की लहर आती है वो तो आसमां छू जाती है, मगर समय गुजरते जब वो मुझसे विदा होते हैं, तो दिल टूट सा जाता है। यद्यपि यह बाहर प्रकट हो ना हो तथापि अन्दर भू-चाल सा उठा देती है। कई बार मेरी इस बेरुखी को देख मेरे अपने ही मेरी मजाक भी बना लेते हैं, मगर उन्हें इस बात का अहसाश तब होता है जब उन्हें अपने वाशिंदे में खुद को अकेले छोङकर उनके अपने सब चल देते हैँ। मैं कई बार अपनों की याद में नीँद की राह भटक जाता हूँ और वहीं से बैचेनी की ठोकरें खाते हुए भोर तक ख्वाब देखता रहता हूँ। इसी तपस्या के फलस्वरुप ही मेरी कलम कुछ सृजन करने को मजबूर हो जाती है और यही पल मेरे जीवन का स्वर्ण युग होते हैँ जब मैँ या तो अपनों के बारे में लिखता हूँ या फिर अपनों के लिये॥
मैँने खुद इस शैयर को पढ़ा और महशूस किया है -

दिल के दर्द को छुपाना कितना मुश्किल है,
टूट के फिर मुस्कुराना कितना मुश्किल है।
दूर तक किसी के साथ जाओ और देखो,
लौटकर अकेले वापस आना कितना मुश्किल है . . .

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

नारी . . .

नारी नर की जननी है ,
इस मातृशक्ति का सम्मान करो |
अरे नारी है श्रम का पुतला,
सजा कर सिंहासन इसका आह्वान करो |
              प्रेम, करुणा और त्याग से,
              और ममत्व से क्या यह अछूती है |
               अरे यही इस ब्रह्माण्ड में,
               मानव जगत की एक अनुभूति है |
जिस कौख से जन्म लिया,
हाय! आज उसी को ठुकराते हो |
देखते हो नित नग्न अत्याचार,
स्वयं उन्हीं को अपनाते हो |

             पूछो जरा अपनी माता से जाकर,
             क्या सोचती है वो तुम्हारे प्रति हर पल |
             क्या होता है मातृ-सनेह और वत्सल,
             बता देगी वो चीर के अपना आँचल |
पूछो उस नवयोवना से जाकर,
क्यों माँ गौरी को फूल चढ़ती है |
किसके लिए मांगती है वो मन्नोतियाँ,
सर्वस्व अपना नीर सा बहती है |
            क्या हालत है आज गृहणी की,
            कितने काम वो सम्हालती है |
            पालन-पोषण तुम्हारा करके,
            बच्चों को तुम्हारे  पलती है |
कौन है जो गीले में सो जाये,
जाड़े से तुम्हे बचा करके |
है कौन जो भूखा रह जाये,
भर पेट तुम्हे खिला करके |
           बिना इसके क्या तुम यहाँ होते ?
           स्वयं इसे मत भुलाओ तुम |
           तुम्हें जन्म देकर इसने जो कर्ज किया,
           सहर्ष उसे चुकाओ तुम |
            
           



सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

अपनी माता चाहिए हिन्दुस्तानी को - - -

डोर धनुष की टूट चुकी है,
तीर पङे हैं सब तरकस में।
छायाओं से मत डरो ए हिन्दी हरिणों।
शेर घुसे हैं सब सरकस में।

एक कहानी सुनो तुम अपनी,
कितनी अजीब है यह यकीन।
पिता स्वरूप सिंहासन तुम्हारा है विजयी,
मगर माता को कैसे गये वो छीन।

क्या विचार है तुम्हारा,
पूछो जरा विधाता से।
क्यों हैं हम उस वत्सल से वंचित,
स्नेह मिलता है जो अपनी माता से।

कह दो उनको ले जाओ तुम,
क्यों छोङ गये इस नोकरानी को।
नहीं चाहिए यह जहरीला आँचल,
अपनी माता चाहिए हर हिन्दुस्तानी को।

तुम संतान इसकी नहीं हो,
बदल गये हैं तुम्हारे विचार।
मगर अब कैसे सहा जायेगा ,
तुमसे यह सौतेला व्यवहार।

सम्बोधन तो अच्छा ही है,
जय-भीम कहो या गाँधी।
हम माँग यही रखेंगे उनके सम,
आयेगी जब प्रतिनिधित्व की आँधी।

गर चाहते हो माता की गोद,
तो एक नये गाँधी को और उभरना होगा।
संविधान की धारा सो-तीन-इक्यावन के,
साकार उस स्वप्न को करना होगा।

हिंदुस्तान की कीमत . . .

स्वयं लिख आपना भाग्य, भाल पर अपनी कलम चला कर,
सूख मत सूर्यताप से, व्यथाग्नि से मत जला कर |

स्वयम अपनी बाँहों पे उठ, जरुरत नहीं सहारों की,
पुकार रहा है देश तुम्हारा, भाषा समझ ले इशारों की |


फ़ैल गई है पूरब में लाली, सूर्योदय हो रहा है,
जगा दे उनको ढोल पीटकर, अब भी जो कोई सो रहा है|

हिन्दू है तूं सिन्धु का वासी, हिन्दू शब्द का सार सिखा दे,
सच्चाई का साक्षी है जो, इतिहास बताकर अहंकार मिटा दे|

पश्चिम की भौतिकता से, कहाँ यह डगमगाया है,
सकल विश्व की अच्छाइयों को, हर संस्कृति से अपनाया है|

कूद पड़ प्रज्ज्वलित ज्वाला में, अंगारों की तरह दहकते जा,
समर्पित करके अपने प्राणों को, फूलों की तरह महकते जा|

संकट में है राष्ट्र तुम्हारा, सीमाएँ आज कुचल रही है,
वही आदर्श है वही तिरंगा, प्रजा फिर भी जल रही है|

बांध दे तूं एक सूत्र में, करगिल और कन्याकुमारी को ,
गौहाटी से चौपाटी तक, फूलों से मंडित ऐसी क्यारी हो|

ऐसा कठौर वज्र बना ले, तलवार कभी ना काट सके,
ज्यों सागर के पानी को, पतवार कभी ना  बाँट सके|

क्षत्रिय कभी पीछे नहीं हटता, लगा दे बाजी जान की,
अपना सीना चीर के बता दे, जो कोई कीमत पूछे हिन्दुस्तान की ||

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

वन विभाग की सतर्कता . . .

एक तरफ आम आदमी ने अपने अर्थ के मोह में अपनी जिन्दगी को सिमेट लिया है तो दूसरी तरफ विभाग के कर्मचारियोँ ने प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा के नाम पर अच्छा मादेय प्राप्त करना ही अपनी चाहत बना ली। ऐसे में इन धरोहरों की रक्षा की बात ही चली गई। यह कङवा सच है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण रूप से माया के मोह में लिप्त है और अपने कर्तव्य के प्रति वफादार नहीं बल्कि उससे विमुख है। पिछले चार साल में 7 बाघोँ की दर्दनाक मौत ने यह साबित कर दिया है कि वन विभाग के कर्मचारीगण का उद्देश्य मानदेय प्राप्त करना मात्र है। मोत के शिकार बने कुल सात बाघोँ में से तीन ने लङाई में जान दी, दो को जहर मिला। एक शिकार की बलि चढ गया तो एक की जान बिमारी ने ले ली। कुछ तो अधिकतर लापता ही रहते हैँ। मैं सोचता हूँ उनको यह कहते हुए शर्म क्यों नहीं आती कि फलां बाघ रेंज से बाहर है, असल में तो वो खुद वन विभाग की रेँज से बाहर नजर आते हैँ। आज सोचनीय विषय यह है कि यह बिकी हुई सरकार शायद किसी भी विभाग की खामियों की केवल लम्बी-लम्बी फाइलें बनाना ही जानती है। हमारे द्वारा चुने हुए नायक मात्र सदन में हंगामों को अंजाम देने के गुर सीखते हैं और बङी ही चालाकी से यह काम करते भी हैं। अपना कार्य क्षैत्र और कर्तव्य से तो वो अनभिज्ञ ही हुआ करते हैँ। भारत का वर्तमान यह है, तो भविष्य का क्या होगा, यह सोच पाना काफी कठिन है।

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

कैसा रहा आपका अनुभव . . .

आपका अनुभव कैसा रहा?
यह प्रश्न अक्सर मैं उन लोगों से पूछा करता हूँ जिन्होँने बिना सोचे विचारे अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर समाज के दर्पण मैं सिर झुका कर अपने मुर्झाये चहरे को देखकर आत्मग्लानि से संकुचाते पाया है।
मैं उनके चहरे के भावों को सहजता से ही पढ़ लेता हूँ और अधिकतर यही पाता हूँ कि वो अपने आप को ही यह समझाने का असफल प्रयास करते रहते हैँ कि मैं निर्दोष हूँ। और आखिर में यह दोष किसी और के द्वारा अपने आप पर थोपा हुआ मानकर बोझिल सा सिर पकङे बैठ जाता है।
मौहल्ले में किसी लावारिस व्यक्ति का शव देखकर कुछ लोगोँ की भीङ जमा हुई। एक युवाओं का जत्था सङक पर बङे पत्थर फैँक रहा था बीच सङक पर टायर जला दिये थे, करीब दो घण्टे से जाम लग रखा था। भीङ मेँ से एक झुण्ड सङक के किनारे कतारबद्ध कुछ दुकानोँ की और चल पङा और बन्द करो-बन्द करो चिल्लाते हुए एक चाय की दुकान पर टूट पङे। दुकान वाला चिल्लाता रहा। काफी तोङ फोङ के बाद भीङ आगे बढ़ी, प्रशासन द्वारा काफी समझाने बुझाने के बाद शव को उठाया गया। दूसरे ही दिन सुबह जब मैं उसी दुकान पर चाय पी रहा था तब उसी तोङ फोङ की चर्चा चल रही थी कि एक युवा ठीक मैरे सामने की बैंच पर आकर बैठा। मैँने उसको भली प्रकार पहचान लिया था कि यह वही युवा है जिसने कल इसी दुकान पर तोङ फोङ किया था। किसी ने पूछा - मर्डर कैश का कुछ पता चला क्या?
बीच मैं पङते हुए वही युवा बोला -छोङो यार अपुन को क्या लेना, दुनिया में लाख मर्डर होते हैँ।
बस मैं यही तो चाह रहा था। मैंने सहजता से उस युवा से परिचय किया और धीरे से वही प्रश्न पूछ डाला- कैसा रहा कल के बन्द अभियान का अनुभव?
वह अचानक चौँक पङा और हकलता हुआ बोला - वास्तव मेँ इन लोगोँ को इस प्रकार तोङ फोङ नहीं करना चाहिए। मैँने कहा - परन्तु उसमें आप भी तो बढ़चढ कर हिस्सा ले रहे थे। यह सुनते ही उसकी गरदन शर्म के मारे झुक गई। तभी दुकान वाला बोल पङा - हाँ यही वो लङका है जिसने मेरे काउन्टर पर पत्थर मारकर सत्यानाश कर दिया था, अब मैं नहीँ छोङुंगा इसको। यह सुनकर उसको सब लोगोँ ने धिक्कारा। युवा ने सबसे माफी माँगी और दुकान मैं हुए नुकशान का हर्जाना भरने का वादा किया। आज वही युवा आज भी उस हॉटल मेँ अक्सर चाय पीने आ जाता है। ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैँ जहाँ पर पथ भ्रमित युवा इस प्रकार भटकता नजर आता है।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

चढ गया है आज बलिवेदी पर . . .

चढ गया है आज बलिवेदी पर, पुत्र तेरा बलिदानी देकर।।
दूर ना होगा माँ तेरे आँचल से, भारत माँ के आँचल में सोकर।।
बाँध लिया था जब कफन मैनेँ,
माँ की लाज बचाई थी।
चढकर बर्फीली चोटियोँ पर,
शहीदोँ की मशाल उठाई थी।
दुश्मन को ललकारा था माँ, कर में अमर कहानी लेकर।
चढ गया है आज बलिवेदी पर, पुत्र तेरा बलिदानी देकर।।

गूंजी थी जब सीमाएँ तोपों से,
गूंज उठी रणभेरी करगिल में,
गूँज उठा जय घोष घाटियों में,
दहकने लगे अंगारे दिल में।
कसम खाई थी माँ वर्दी पहनते, कर मेँ गीता कुरान को लेकर।
चढ गया है आज बलिवेदी पर, पुत्र तेरा बलिदानी देकर।।

खून उबला था अंग-अंग में,
कर ने तलवार थमाई थी।
माँ तेरी जयकार लगाकर,
सेना ने तोपें उठाई थी।
तिल-तिल कर दिया था दुश्मन के तन को, शांत हुई यह पीङा जब रक्त-धारें बह कर।
चढ गया है आज बलिवेदी पर, पुत्र तेरा बलिदानी देकर।।

मरते दम तक सामना किया था माँ,
विजय हमीं ने पाई थी।
वीरों की इस वीर जननी की,
सबने लाज बचाई थी।
घायल हुआ जब घाटियों के तिमिर में, माँ भारती को आहूति देकर।
चढ गया है आज बलिवेदी पर, पुत्र तेरा बलिदानी देकर।।


अंतिम इच्छा:-
साथी शव को सोंप दे जब,
तुम्हें हंसते-हंसते फूल चढाना है।
मेरी चिता जब जलने लगे माँ,
वन्दे मातरम् तुझको गाना है।।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

किन-किन को साकार करूं . . .

तीर्थ मेरे हैं अनेक,
किन-किन का आभार करुं।
देखे हैं सहस्रों स्वप्न,
किन-किन को साकार करुं।

सोचता हूँ अमर बनूं,
या समाज हित समर बनूं।
मन चाहता है खिलते फूलों पे,
मंडराता भ्रमर बनूं।

सहनी हो हर पल पीङा,
पर मन-मानस ना घबराए,
निष्काम कर्म-रत् रहकर मैं,
खत्म करूँ दु:ख के साये।
सुख-दु:ख दोनों साथी है,
सोच मन में यह सह जाऊँ।
दीन बनकर हीन भाव से,
हाथ किसी-सम ना फैलाऊँ।
जलता रहूँ मैं दीपक की भाँति,
जग का सारा अंधकार मिटाऊँ।
जन्म लिया है मानस-जग में,
जनहित के लिये ही जीवन बिताऊँ।
घूमता रहूँ मैं सारे जग में,
चलती रहे कलम निरन्तर।
साहित्य के इन स्वर्ण पृष्ठों से,
हो मुखरित सारा मानव तन्त्र।
~ सुखदेव 'करुण'
25 JULY, 2008

रविवार, 12 दिसंबर 2010

जुदाई . . .

आखिर भुला ही दिया साथी तुमने, दूर हमसे जा करके।
छोङ के चले गये अकेले में, तुम अपना हमें बना करके।

मैंनेँ भी बिताये थे, दो पल जिन्दगी के तेरे साथ में।
शीशे की तरह तोङ कर दे दिया, तूनें यह दिल मेरे हाथ में।
जिन्दगी की इन राहों मेँ, कई मुकाम कई पैगाम होँगे।
मगर बिताये जो पल तेरे साथ में, वो आरजू तेरे ही नाम होँगे।
थकी हुई यह जुबां मेरी, गीत जुदाई के गा रही थी।
प्यार था दिल मेँ उमङ रहा, आँखें आँसू बहा रही थी।
कैसे समझाता मैं अपने दिल को, झूठे लग रहे थे वादे सारे।
टूट रहे थे स्वप्न मेरे, बदल रहे थे इरादे सारे।
उठ रहे थे बवंडर सागर मेँ, लहरें हिलोरेँ खा रही थी।
देख रहे थे वो हाथ बाँधे, जब पतवार हमारी डूबी-जा रही थी।
देख रही थी एक टक नम आँखें, बिछुङन के आखिरी पल को।
मानो चातक देखकर तङप रहा हो, बिना बरसे जा रहे बादल को।
बस तन्हाई ही शेष रह जाती है, जब साथी कोइ जुदा हुआ करते हैं।
मिले तुम्हें हम से भी अच्छा हमसफर, खुदा से यही दुआ करते हैं।
~सुखदेव 'करुण'
17 FEB, 2010

सच पूछो तो यारोँ प्यार में . . .

सच पूछो तो यारोँ प्यार में,
बस आँसू ही श्रृंगार होता है।

बिछुङ कर साथी प्यार के हिलोरोँ से,
फिर गिला करे बाग के उन भौँरोँ से,
तङपते जाये पुनर्मिलन को,
क्या यही सच्चा प्यार होता है?
सच पूछो तो यारोँ . . . 1


मजबूर हो कोई प्यार छुपाने को,
या समर्थ ना हो उसे जताने को,
ऐसे में क्या कोई,
उस प्यार का हकदार होता है ?
सच पूछो तो यारोँ . . . 2


साथी को अहसाश ना हो पाये,
या प्यार जताने में वो हिचकिचाये,
तब बन्धन की उस कङी का नतीजा,
केवल उसकी हार होता है?
सच पूछो तो यारोँ . . . 3


काँटे हो वृंदावन के महकते फूलों मेँ,
हो रुदन राधिका का, कृष्ण के उन झूलोँ मेँ,
तब आँसू बहाती उन गोपियोँ का,
बस मोहन ही संसार होता है।
सच पूछो तो यारोँ . . . 4

जहाँ हर रोज नभ में बादल मंडराते हैं,
देख-देख उन्हें वो नन्हें कोँपल जल जाते हैँ,
जहाँ झूठ-कपट और अपराधोँ से,
सना हुआ हर दिलदार होता है।
सच पूछो तो यारोँ . . . 5


जहाँ होता है हर रोज खेल घिनोना,
बन चुका प्यार जहाँ जिस्म का खिलोना,
ऐसे में जता ना पाते दुनियाँ के सम जब,
तभी तो प्यार के नाम पर अत्याचार होता है।
सच पूछो तो यारोँ . . . 6
~सुखदेव 'करुण'
06 MAY 2010

चाहे कितने दूर रहेँ हम . . .

चाहे हमसे दुनियाँ रूठे,
चाहे वादे हों सब झूठे,
हम सदा करीब रहेंगे।
कंटकों भरी राह हो चाहे,
उसका प्रेम अथाह हो चाहे,
मगर मिला साथ तुम्हारा हमें, तो,
हम अपना नसीब कहेंगे।

प्यार है बन्धन अपनों का, फुलवारी प्यार की हर पल सजाना।
चाहे कितने दूर रहेँ हम, बाँधकर बन्धन में हमें पास लाना॥

हम चाहते हैँ साथ अपनों का,
हाथ में हो हाथ अपनों का,
चाहै जो रीति हो, अपना लेँगे।
पूरी करनी हो यदि शर्त कोई,
लेना पङे जीवन व्रत कोई,
रूठ जायें अगर आप कभी तो,
हो विनम्र हम मना लेँगे।

हम सदा साथ रहेंगे- राहोँ में आये कभी संकट तो यही दोहराना।
चाहे कितने दूर रहेँ हम, बाँधकर बन्धन में हमें पास लाना॥

तुमसे प्रीत जो लगाई तो,
प्यार की ज्योत जलाई तो,
तुम भी चिराग जला देना।
हमने जो पैगाम दिये थे,
वो लम्हे अपने नाम किये थे.
सजाना हो महफिल कभी तो,
रंग जमाने को हमें भी बुला लेना।

अब तन्हाइयों में अच्छा नहीं लगता हमें, अकेले बैठ कर रोना।
चाहे कितने दूर रहें हम, बाँध कर बन्धन में हमें पास लाना॥

~ सुखदेव 'करुण'